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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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हस्तक्षेप

उपेन्द्र कुमार सत्यार्थी

मनोविश्लेषणवाद और शेखर एक जीवनी

मनोविश्लेषणवाद मानव मन की आंतरिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करनेवाली आधुनिक अध्ययन पद्धति है. जिस तरह प्राकृतिक विज्ञान वाह्य प्रकृति के नियमों की खोज कर उसकी सम्पूर्ण संरचना का पता लगाते हैं. उसी तरह मनोविज्ञान मनुष्य की आंतरिक प्रकृति की संरचना के नियमों का संधान है. मनोविश्लेषणवाद मष्तिस्क के चेतन उपचेतन और अचेतन तीन भाग कर अचेतन को विशेष महत्व प्रदान करता है. यही अचेतन हमारे व्यक्तित्व हमारे सारे कार्य व्यापारों हमारे सारे नैतिक आचारों का निर्माता और नियन्ता है. सी. ई. एम. जोड़ और वर्जीनिया वूल्फ़ ने मानव मन की तुलना जल पर तैरती उस बर्फ से की है. जिसका 2/3 भाग जल के अन्दर रहता है और केवल 1/3 जल के बाहर दिखाई देता है. जल के भीतर का भाग अवचेतन मन ही चेतन मन की प्रक्रियाओं को निर्धारित करता है.

कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य मूलत: वह नहीं है. जो ऊपर सतह पर दिखाता है. बल्कि वह है. जो अपने भीतर अनभिव्यक्त रूप से छिपा हुआ है और उसका जितना अंश बाहर दिखता है. वह भी चेतन की उपज नहीं है. उस पर भी अनजाने ही परोक्ष रूप से अचेतन का नियंत्रण और प्रभाव है. अचेतन में मनुष्य की कुछ आदिम वासनाएँ रहती हैं. फ्रायड इसे यौन वासनाएँ, एड्लर इन्हें हीनता की भावनाएँ, युग इन्हें जीवनेच्छाएँ मानता है. अचेतन में जो आदिम वासनाएँ पैदा होती हैं. वे अपनी प्रकृति में बड़ी ही अपरिष्कृत और उद्दण्ड होती हैं. स्वार्थी होती हैं. सामाजिक सम्बन्धों को समझाने और निभाने वाला चेतन इन उठती हुई वासनाओं को बार बार दमित करता है और ये वासनाएँ फिर अपनी जगह पर लौट आती हैं. और वे बाँध दी गई नदी के समान अचेतन में एक प्रकार के दलदल की सृष्टि करती हैं. जिसे ग्रंथियाँ (कॉंप्लेक्स) कहते है. यह ग्रंथियाँ हिस्टारिया. नर्वसनेस उन्माद और प्रेत बाधाओं को जन्म देती हैं. ग्रंथियों को प्रकाश में लाने और बाहर कर देने से ये बीमारियाँ छूट जाती हैं. जो कि वासनाओं के निरन्तर दमन से उद्भुद्ध हुई हैं. फ्रायड का विचार है कि चेतन की सारी वस्तुएँ अचेतन के परिशोधित तत्वों को अवश्य किसी न किसी मात्रा में धारण किए रहती हैं. यह सिद्धांत केवल मनुष्य के भावनात्मक और वासनात्मक तत्वों तक सीमित नहीं वरन यह उसके विश्वासों और विचारों पर भी लागू मनुष्य की कला रुचि और धर्म के प्रति विश्वास अचेतन से उसी प्रकार निश्चित होते हैं. जिस प्रकार उसकी किसी नारी सौन्दर्य के प्रति रुचि या अपने चरित्र के प्रति विश्वास फ्रा. यड के अनुसार मष्तिस्क के वास्तविक कर्म तर्क से नहीं प्रवृत्ति और आवेग से संचालित होते हैं. मष्तिस्क स्पन्दनों विचारों बोध ज्ञान और तार्किक क्रमों या कुछ निश्चित आध्यात्मिक सारों का समुच्चय नहीं है. बल्कि वह एक गहरा उर्मिल सिन्धु है. जिसके रहस्यमय तत्व उसके चेतन स्तर या तर्क में उपलब्ध नहीं होते बल्कि अचेतन और प्रवृत्तियों की गहराई में ही प्राप्त होते हैं.

एडलर के अनुसार व्यक्ति संसार में कमज़ोर महत्वहीन और असहय रूप में आता है. प्रकृति से लड़ने में वह असमर्थ होता है और भोजन, वस्त्र तथा शरण के लिए अपने बड़ों पर अवलम्बित रहता है. दूसरी ओर वह देखता है कि उसके बड़ों के पास अधिक शक्ति है. वे विश्व के प्रति अधिक ज्ञान रखते हैं और जैसा चाहते हैं. रहते हैं. इन सब कारणों से वह बड़ों की शक्ति से अभिभूत हो उठता है और वह एक हीनता की भावना अनुभव करने लगता है. अपनी हीनता की क्षतिपूर्ति के लिए वह अपने वातावरण को प्रभावित करना चाहता है. वह अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए तथा साथियों की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है. किन्तु जब वह अपनी कोशिशों के बावज़ूद अपने वातावरण सी कोइ उत्तर नहीं पाता तो उसे कष्ट होता है और कल्पना की शरण लेता है. उस लोक में वह लोगों पर रोब जमाता है. जो उस पर हँस चुके होते है. इस प्रकार एडलर के कथानुसार हीन-भावना की यह अनुभूति बच्चों के प्रयत्नों को जन्म प्रेरक शक्ति है. बच्चा अपनी हीनता की क्षतिपूर्ति के लिए जिन मार्गों को ग्रहण करता है. वे उसके लक्ष्य का निश्चय करते हैं और जो उसके वयस्क जीवन के समस्त व्यापारों का निर्देश करते हैं. बचपन की हीन-भावनाओं की भिन्नताओं के कारण मनुष्य-मनुष्य के जीवन के लक्ष्य भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं. वे स्पष्ट: नहीं होते यहाँ यहाँ तक कि वे जीवन के व्यवहारों के सम्बन्धों कभी निर्माण करते हैं. ऐसे साँचे गढ़ते हैं कि जिनमें हमारे जीवन के समस्त अनुभव अपना स्थान बना सके. इस तरह एक विशेष परिस्थिति में एक मनुष्य को आनन्द में सकता है. दूसरों को ऊब आ सकती है. बचपन में हमारे व्यवहारों का जो साँचा बन जाता है. जिसमें यदि कोई अनुभूति या आवेग नहीं आँट पाते तो उन्हें हम स्वीकार करने से इन्कार कर देते हैं.

'युग' जीवनेच्छा को मूल प्रेरक-शक्ति मानता है. जीवनेच्छा में लोक वित्त और पुत्र तीनों ऐषणाएँ समाविष्ट हो जाती हैं. मनुष्य जीना चाहता है. वह चाहता है कि उसका अस्तित्व अमर रहे इसी इच्छा की पूर्ति के लिए वह अनेक प्रयत्न करता है. साहित्य निर्माण उन प्रयत्नों में प्रमुख है क्योंकि साहित्य द्वारा हम अपने को भली-भाँति व्यक्त कर सकते हैं और व्यक्त करना जीवनेच्छा का ही एक ही रूप है. युग के जिजीविषा वाले सिद्धांत में फ्रायड एडलर के सिद्धांत समाविष्ट हो जाते है. 'युग' व्यक्तिगत अचेतना के साथ सामूहिक अचेतन भी मानता है और दोनों में अन्तर दिखाता है. इस प्रकार इन तीनों मनोविश्लेषण शास्त्रियों ने अपने-अपने ढँग से मन के अचेतन भाग की ही समर्थ प्रेरक और महत्वपूर्ण भाग माना है. अचेतन में दमित वासनाएँ हमारे जीवन के हर कार्य को प्रभावित करती रहती हैं. ये दमित वासनाएँ ग्राथियाँ निर्मित करती हैं और ये ग्रंथियाँ बचपन से ही बनने लगती हैं. इसलिए बच्चों का जीवन जो ऊपर से बड़ा ही सरल भोला-भाला दिखाई पड़ता है. वास्तव में बड़ा जटिल होता है. यदि बच्चों की मन: स्थितियों और उनकी आवश्यकताओं को ठीक से न समझ कर उनका ठीक से विकास न किया जाए तो बच्चों का मन ग्रंथियों का भंडार बन जाता है और उन्हीं ग्रंथियों को लिए दिए बच्चा आगे बढ़ता है. तो उसके हर कार्य हर व्यापार और आचरण में वे ग्रंथियाँ प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करती हैं.

अत: मनोविश्लेषण शास्त्रियों ने बच्चों के मन की व्याख्या करके मानव-मन के उन मूलवर्ती सत्यों का पता लगाया है. जो मन की गहराई में अवस्थित होकर ऊपर से अदृश्य रहकर जीवन के हर गति प्रभावित करते रहते है. फ्रायड लिविडों को मानव-प्रकृति का मूल प्रेरणा स्रोत मनता है. उसके अनुसार छोटे-छोटे बच्चों को आत्मरति में सुख मिलता है. बच्चों का अँगूठा चूसना आत्मरति का ही एक ही रूप है. मल-मूत्र त्याग करने में भी उन्हें रति का सुख मिलता है. इससे एक कदम और आगे बढ़कर फ्रायड ऑडिपस कॉंप्लेक्स यानी लड़के का अपनी माँ की ओर आकृष्ट होना और इलेक्ट कॉंप्लेक्स यानी लड़कियों का अपने पिता की ओर आकृष्ट स्वयं अपने कार्यों के प्रति ज़िम्मेदार नहीं है क्योंकि वह तो स्वत: चालित प्रवृत्तियों से प्रेरित होता है. वे प्रवृत्तियाँ बचपन से ही उसमें अपना स्वरूप बना लेती हैं. कुछ ग्रंथियों का निर्माण कर लेती है. इन मनोविश्लेषणवादी सिद्धांतों ने साहित्य को बहुत दूर तक प्रभावित किया इन्होंने साहित्य की सर्जना और विवेचना दोनों को बहुत कुछ बदला और सच बात तो यह है कि मनोविश्लेषणवाद ने जीवन के समस्त स्वीकृत और यथार्थ के स्तरों को अस्वीकृत कर नए सिरे से जीवन सत्यों और मूल्यों के बारे में सोचने को बाध्य किया मानव चरित्रों के स्वीकृत प्रतिमानों को खंडित कर उनके भीतर स्थित नँगी वास्तविकता को अनावृत्त कर दिया इसीलिए साहित्य की सर्जना और विवेचना भी इस सिद्धांत से काफी प्रभावित हुई.

शेखर एक जीवनी में मनोविश्लेषणवाद: मनोविज्ञान और साहित्य का सम्बन्ध शुरू से ही रहा है. भारतीय एवं पाश्चात्य शास्त्रियों ने शुरु से ही मनोविज्ञान एवं साहित्य के बारे किसी न किसी रूप में चर्चा की है. आधुनिक मनोविज्ञान की विशेषता यह है कि उसके आधार पर साहित्य एवं साहित्यकार के अध्ययन के एक निश्चित मनोविश्लेषणात्मक पद्धति विकसित हो चुकी है. इसके आधार पर न केवल वर्तमान साहित्य एवं साहित्यकार का बल्कि अतीत कलीन साहित्य एवं साहित्यकारों का भी विशेष अध्ययन किया जाता है. मनोविज्ञान के आधार पर आलोचक और अनुसंधानकर्ता साहित्यिक कृतियों का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन करते हैं. साथ ही ख़ुद रचनाकार फ्रायड, युग, एडलर यदि मनोविज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग अपने रचना-कर्म में करते हैं. आधुनिक काल में साहित्य के मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन की शुरूआत में होती है. मनोविज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर रचना-कर्म भी पश्चिम में ही शुरु होता है.

इस संदर्भ में हेनरी जेम्स, फ्रां काफ़्का, जेम्स ज्वायस, जोसेफ़, कॉमरेड दोस्तोवस्की और वर्जीनिया वूल्फ़ आदि लेखकों का नाम लिया जा सकता है. आई. ए. रिचर्डस की कविता की न्युरोमीटर की अवधारणा एषमड विल्सन का बिम्बवाद नई आलोचना (नेव क्रिटिसिज़्म) में विडम्बना और अस्पष्टता की अवधारणा और नार्थ्रोप फ्रांये का संबंधित अध्ययन कहीं न कहीं फ्रायड तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों का सवाल उनमें एडमंड बिल्सन लोनेल ट्रिलींग कैनिथ बर्फ लियोएडेल हैरी लेविन मैक्सवेल गिज़मर और लेसले शामिल है. भारत में मनोविज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित मनोविश्लेषणात्मक पद्धति का समुचित विकास नहीं हुआ है. अलग से मनोविश्लेषणात्मक आलोचक हिंदी में नहीं है. कुछ लोगों ने मनोविज्ञान एवं साहित्य के संबंध को लाकर अनुसंधान कार्य अवश्य किया है. कुछ साहित्यकारों और उनकी रचनाओं के मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन का फूटकर प्रयास भी हुआ है.

जहाँ तक हिन्दी साहित्यकारों का सवाल उनमें जैनेन्द्र कुमार, भगवती प्रसाद वाजपेयी, इलाचंद जोशी, यशपाल (दादा कॉमरेड), रघुवंश (तंतजाल), मोहन राकेश (अँधेरे बन्द कमरे) आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यास लिखने की शुरूआत जैनेन्द्र से मानी जाती है. उनके पहले उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के उपन्यासों में नगेन्द्र ने मनोवैज्ञानिक गहराई के अभाव की शिकायत की है. उनके अनुसार प्रेमचंद के उपन्यासों में अन्तर्द्वंद्व एवं अन्तर्जगत की समस्याओं की चित्रण का अभाव है लेकिन यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद के उपन्यासों में जैविक मनोज्ञान का अभाव भले ही हो उनकी सामाजिक मनोविज्ञान की समझ अत्यंत पुष्टरूप में हमारे आती है. जैनेन्द्र का उपन्यास परख़, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी आदि और कहानियों में मनोविज्ञान का अभाव लक्षित होता है लेकिन उनके उपन्यासों को फ्रायडीयन नहीं कहा जा सकता है. खुद जैनेन्द्र ने माना है कि फ्रायड को काफी दिनों तक पढ़ा ही नहीं था लेकिन अज्ञेय के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है.

अज्ञेय एक बहुपठित लेखक है. शेखर एक जीवनी की रचना के समय उन्होंने न केवल मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का अध्ययन किया हुआ था, बल्कि अन्य आधुनिक सिद्धांतों एवं विचारधाराओं समेत अनेक महत्वपूर्ण पश्चिमी साहित्य का अध्ययन किया हुआ था. 'शेखर एक जीवनी' इसका एक प्रमाण है. जिसमें शुरु से अन्त तक पाठीयता देखने को मिलती है. शेखर एक जीवनी में मनोविज्ञान का प्रभाव सबसे ज़्यादा उसका नायक शेखर के चरित्र और उसके कार्यों पर देखने को मिलता है. उपन्यास में शेखर के जन्म से लेकर जवानी तक का चरित्र-चित्रण मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर हुआ है. इस रूप में इसका जैविक मनोविज्ञान काफी हद तक प्रामाणिक रूप में सामने आता है. यह उपन्यास शशि से प्रारंभ एवं शशि से ही अन्त होता है. मौत की आशंका से उपन्यास का प्रारंभ एवं शशि की मौत से ही उसका अन्त भी होता है. मौत इस उपन्यास पर छाया है. मनोवैज्ञानिकों की तरह इस उपन्यास में भी (फ़्री एसोसिएसन तकनीक) अपनाया गया है. इस पद्धति के माध्यम से व्यक्ति अपने अवचेतन मन को मनोचिकित्सकों के सामने अपनी पोल खोल देता है और आत्मीय संबंध बना लेता है. इसका प्रयोग अक्सर अपराधियों पर किया जाता है. शेखर जिस काल कोठरी में बन्द है. वही मनोचिकित्सक की प्रयोगशाला है. शशि के प्रतिकाम भावना माँ का पिता को डाँटना माँ द्वारा अश्लील पुस्तकें पढ़ना आदि भावों को खोलकर सामने रख देता है. फाँसी उसको मुग्ध करती है और यही उसके अवचेतन को खोलती है. मौत के प्राप्ति उसके रोमांटिक भाव देखने को मिलता है. उपन्यासकार पुनरावलोकन पद्धति का भी प्रयोग किया है.

इसकी विशेषता यह है कि बाद की घटनाओं को पहले तथा पहले की घटनाओं को बाद में रखता है. इस पद्धति की विशेषता के फलस्वरूप ही लेखक शेखर से ऐसा करवाता है. शेखर सुखद क्षणों को तथा प्रेम को खोजता फिरता है. इस तरह घटनाओं का एक सही क्रम भी नहीं है. फ्रायड के अनुसार मनुष्य आगे चलकर जो कुछ भी बनता है. जो भी प्रेरणाएँ उसमें होती है. जो भी विकृतियाँ उसमें होती हैं वे तीन साल के बच्चों में बीज रूप में पहले से रहता है. अत: यदि हम किसी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करना चहुँ तो पहले बालक मन का विश्लेषण करे जिसमें मनुष्य की महत्ती प्रेरणाएँ बीज रूप में रहती है. जीवनेच्छा और मरणेच्छा के द्वंद्व से जीवन का विकास होता है. जैसे-जैसे सामाजिक करण होता जाता है. वैसे-वैसे मरनेवाली इच्छा मारनेवाली इच्छा में बदलती है. शेखर जब हिंसक क्रांतिकारी आन्दोलन में भाग लेता है. तो मरने वाली इच्छा ही मारनेवाली इच्छा में बदल जाती है. शेखर अपने शैशावस्था का मनोविश्लेषण करता है. उसके द्वारा 3 वर्ष के शेखर से लेकर किशोरावस्था के शेखर का मनोविश्लेषण किया गया है. शारदा के प्रसंग तक मनोविश्लेषण परन्तु शशि के आते ही मनोविश्लेषण समाप्त होकर 'डिस्क्रिप्टिव' हो जाता है. शिशु शेखर जीवन मृत्यु और ईश्वर के बारे में हमेशा प्रश्न करता रहता है. शेखर भाग्यवादी नहीं है. वह बुद्धिजीवी है. कार्य-कारण परम्परा में विश्वास रखता है. नियतिवादी व्यक्ति यह मानता है कि जो भाग्य में होगा वही मिलेगा. फ्रायड ने जीवन की तीन महत्ती प्रेरणाएँ को स्वीकार करता है. अहं, भय एवं सेक्स (काम) शेखर में ये सभी पाये जाते हैं. शेखर घोर अहंवादी है क्योंकि वह स्वकेन्द्रित है. मुझे मूर्ति उतनी नहीं चाहिए, मूर्ति पूजक चाहिए. शेखर का घोर अहंवादी रूप यहाँ प्रकट होता है. शारदा के प्रसंग में शारदा द्वारा अपमानित होने पर वह शारदा को कभी याद नहीं करता है. यहाँ वहाँ घोर अहंवादी है.

शेखर में भय भी देखने को मिलता है. अज़ायबघर में देखकर वह डर जाता है. परन्तु घर में घास-फुस से भरे शेर को देखकर वह उसके पेट को चीर देता है और कहता है. डर डरने से होता है. यह निष्कर्ष तीन साल के बच्चे का नहीं लगता, बल्कि किशोर शेखर का लगता है. शेखर में काम-भाव भी कम नहीं है. शशि, शारदा, सरस्वती आदि से वह प्रेम करता है और उसके मन में काम-भाव भी जागता है. काम भाव व्यक्तित्व को बहुआयामी बनाता है. यह शेखर में देखते हैं. अज्ञेय एक विद्रोही लेखक होने के नाते और शेखर एक विद्रोही पात्र होने के नाते मनोविज्ञान के सैद्धांतिक प्रभाव को नकारते भी है. यह निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट होता है. प्राय: लोग संतान पर माँ के प्रभाव की बात करते हैं. बहुतों का विश्वास है कि सभी असाधारण व्यक्तित्व पर उनकी माँ का प्रभाव रहा होता है. अच्छे या बुरे उनके लिए साधारण नहीं है. वे सुलग नहीं सकते फट ही सकते है. (शेखर एक जीवनी-1. पृष्ठ 123-124).

शेखर का स्व: फ्रॉयडीय अध्ययन के लिए आमंत्रित करता है लेकिन वह इतना चौकस भी है कि सचेत रूप से ख़ारिज करके चलता है. वह फ्रायडीय लारेंसीय ईडिपस ग्रंथि को उलट देता है. उसकी स्थापना है कि अद्वितीय पुरूष अपने पिता से प्रभावित होते हैं. यानी फ्रायड की मान्यताएँ केवल साधारण लोगों के लिए सही हो सकती है. इस प्रकार हम देखते हैं कि अज्ञेय ने 'शेखर एक जीवनी' की रचना में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का प्रयोग और प्रतिकार दोनों ही किया है. इसके फलस्वरूप उनका नायक काफी जटिल द्वंद्वग्रस्त और अन्तर्जगत की चौहद्दियों में चक्कर काटता है. नज़र आता है. एक जगह ख़ुद लेखक ने लिखा है कि वह यानी शेखर अपनी ही पूँछ का पीछा करने वाला कुत्ता बन रह जाता है. शेखर के इस तरह के चरित्र के पीछे कारण यह नज़र आता है कि लेखक उसके जैविक मनोविज्ञान में पर्याप्त रूचि लेता है लेकिन उसके सामाजिक-मनोविज्ञान के विकास की ओर ध्यान नहीं देता, फिर भी 'शेखर एक जीवनी' एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास के रूप में हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है.

संदर्भ ग्रंथ सूची;.

1-मनोविश्लेषणवाद-फ्रायड
2-फ्रायड एन्ड लिट्रेचर-लोनेल ट्रिलींग
3-शेखर एक; जीवनी-भाग-1, 2-अज्ञेय
4-उपन्यास स्थिति और गति-चँद्रकान्त बान्दिवडेकर
5-हिन्दी उपन्यास-सुषमा प्रियदर्शनी
6-हिन्दी उपन्यास पहचान और परख़-इन्द्रनाथ मदान
7-आस्था के चरण--नगेन्द्र
8-क्रांति का विचार और हिन्दी उपन्यास-प्रेम सिंह
9-आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य और मनोविज्ञान-देवराज उपाध्याय.

© 2009 Upendra Kumar Satyarthi; Licensee Argalaa Magazine.

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